देहरादून, 20 दिसंबर, 2023 – उत्तराखंड में मूल निवास की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन को देखते हुए राज्य सरकार ने एक शासनादेश जारी किया है। इस आदेश में कहा गया है कि राज्य के मूलनिवास प्रमाणपत्र धारकों को किसी भी सरकारी विभाग द्वारा स्थाई निवास प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
हालांकि, मूल निवास स्वाभिमान समन्वय संघर्ष समिति के संयोजक मोहित डिमरी ने इस आदेश को ‘झुनझुना‘ करार दिया है।
उन्होंने कहा कि यह आदेश पूरी तरह से जनता की आंखों में धूल झोंकने वाला है।
डिमरी ने कहा कि सरकार को पहले यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह मूल निवास की सीमा किस तिथि को मानती है।
उन्होंने कहा कि हमारी स्पष्ट मांग है कि उत्तराखंड में मूल निवास की सीमा सन् 1950 से मानी जानी चाहिए।
उन्होंने कहा कि जब तक 1950 की तिथि अंतिम नहीं मानी जाएगी, तब तक मूल निवास की लड़ाई जारी रहेगी।
सरकार को उन्होंने चेतावनी दी कि अब उत्तराखंड के मूलनिवासी ।
इस तरह के झुनझुने के झांसे में नहीं आने वाले हैं।
मूल निवास की मांग क्यों है महत्वपूर्ण?
इस की मांग उत्तराखंड के लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण मांग है।
इस मांग को लेकर उत्तराखंड में लंबे समय से आंदोलन चल रहा है।
मूल निवास की मांग का मुख्य आधार यह है कि उत्तराखंड एक पहाड़ी राज्य है और यहां की संस्कृति और परंपराएं अलग हैं।
उत्तराखंड के लोग अपनी संस्कृति और परंपराओं को बचाना चाहते हैं।
मूल निवास की मांग के समर्थन में तर्क दिया जाता है कि उत्तराखंड में मूल निवासियों को जमीन, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए मूल निवास प्रमाणपत्र की आवश्यकता है।
मांग को लागू करने के लिए क्या किया जा सकता है?
मूल निवास की मांग को लागू करने के लिए उत्तराखंड सरकार को एक सशक्त भू-कानून बनाना चाहिए।
इस कानून में मूल निवास की सीमा को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए।
इसके अलावा, सरकार को मूल निवास प्रमाणपत्र के लिए आवेदन करने की प्रक्रिया को आसान बनाना चाहिए।
उत्तराखंड सरकार को मूल निवास की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन को गंभीरता से लेना चाहिए।
सरकार को इस मांग को जल्द से जल्द पूरा करना चाहिए।