उत्तराखंड,देहरादून : मूल निवास भू कानून समन्वय संघर्ष समिति ने देहरादून परेड ग्राउंड में आयोजित 24 दिसम्बर की मूल निवास स्वाभिमान महारैली की तैयारियां पूरी कर दी है। संघर्ष समिति का दावा किया है कि महारैली में हजारों-हजार लोग जुट रहे हैं। शहीद स्मारक (कचहरी) में आयोजित पत्रकार वार्ता में मूल निवास भू कानून समन्वय संघर्ष समिति के संयोजक मोहित डिमरी ने कहा कि सरकार ने मूल निवास को लेकर एक कमेटी का गठन किया है।इससे पहले भी भू कानून को लेकर कमेटी गठित हुई। इस कमेटी की रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं हो पाई है। अब एक बार फिर सरकार मूल निवास को लेकर कमेटी बनाकर मामले को उलझाना चाहती है।

जनता सरकार के बहकावे में नहीं आएगी

उत्तराखंड के हर गांव और शहर से हजारों लोग मूल निवास स्वाभिमान महारैली में पहुँच रहे हैं। उत्तराखंड स्टूडेंट फेडरेशन के केंद्रीय अध्यक्ष एवं संघर्ष समिति के कोर मेम्बर लुशुन टोडरिया ने कहा कि उत्तराखंड की जनता अपनी अस्मिता और अधिकारों को लेकर अब आर-पार की लड़ाई के लिए तैयार हो चुकी है। मूल निवास कानून की कट ऑफ डेट की तारीख 26 जनवरी 1950 घोषित होनी चाहिए। ठोस भू कानून लागू होना चाहिए। गैर कृषक द्वारा कृषि भूमि खरीदने पर रोक लगनी चाहिए। पर्वतीय क्षेत्र में गैर पर्वतीय मूल के निवासियों के भूमि खरीदने पर तत्काल रोक लगनी चाहिए।

राज्य आंदोलनकारी मोहन सिंह रावत एवं वन यूके टीम से अजय बिष्ट ने कहा कि राज्य गठन के बाद से वर्तमान तिथि तक सरकार द्वारा विभिन्न व्यक्तियों, संस्थानों, कंपनियों आदि को दान तथा लीज पर दी गई भूमि का ब्यौरा सार्वजनिक किया जाए।प्रदेश में विशेषकर पर्वतीय क्षेत्र में लगने वाले जिन भी उद्यमों, परियोजनाओं में भूमि अधिग्रहण या खरीदने की अनिवार्यता है या भविष्य में होगी, उन सभी में स्थानीय ग्राम निवासी का 25% तथा जिले के मूल निवासी का 25 प्रतिशत हिस्सा अवश्य सुनिश्चित किया जाए। ऐसे सभी उद्यमों में 80 प्रतिशत रोजगार स्थानीय व्यक्ति को सुनिश्चित किया जाये.राज्य आंदोलनकारी क्रांति कुकरेती ने कहा कि मूल निवास को लेकर सरकार का शासनादेश पूरी तरह से जनता की आंखों में धूल झोंकने वाला है।

मूलनिवास स्वाभिमान रैली को लेकर जिस तरह का उत्साह पूरे उत्तराखंड में दिख रहा है, उससे लोगों का ध्यान बंटाने के लिए सरकार ने यह दिखावा किया है। सरकार पहले ये तो बताए कि मूल निवास की सीमा वह किस तिथि को मानती है ? हमारी स्पष्ट मांग है कि उत्तराखंड में मूल निवास की सीमा सन् 1950 से मानी जानी चाहिए। जब तक 1950 की तिथि अंतिम नहीं मानी जाएगी, तब तक मूल निवास की लड़ाई जारी रहेगी।

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