पिछले 46 दिनों से महाराष्ट्र की आंगनवाड़ी सेविकाएं और सहायिकाएं हड़ताल पर हैं। उनके हथियार? गुस्सा नहीं, लाठी-डंडे नहीं, बल्कि बच्चों के स्वास्थ्य और भविष्य के लिए उनकी चिंता और बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की मांग। यही वह हथियार है, जिससे वे सरकार से मुकाबला ले रही हैं।

नन्हे फरिश्ते, मायूस इंतजार में

आंगनवाड़ी केंद्र ग्रामीण इलाकों की ज़िंदगी का अहम हिस्सा होते हैं। यहां दो वक्त का खाना, थोड़ा पढ़ना-लिखना और सुरक्षित माहौल बच्चों को मिलता है। लेकिन पिछले डेढ़ महीने से ये केंद्र सुनसान पड़े हैं। हड़ताल पर बैठी आंगनवाड़ी सेविकाएं और सहायिकाएं सरकार से बेहतर वेतन, बच्चों के लिए पौष्टिक और पर्याप्त भोजन और साफ-सुथरे केंद्रों की मांग कर रही हैं। इस हड़ताल की सबसे बड़ी मार तो 65 लाख बच्चों पर पड़ रही है, जो इन केंद्रों पर निर्भर हैं।

मांगें वाजिब, सरकार अनसुनी

सेविकाओं की मांगें बिल्कुल जायज़ हैं। महंगाई के दौर में 6,000 से 12,000 रुपये तक का न्यूनतम वेतन मांगना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। दोपहर के भोजन के लिए प्रति बच्चे प्रतिदिन सिर्फ 8 रुपये का बजट क्या मायने रखता है, जब पोषण की ज़रूरत सबसे ज़्यादा होती है? जर्जर इमारतों, टूटी शौचालयों और गंदगी से भरे आंगनवाड़ी केंद्र बच्चों के लिए कितने सुरक्षित हो सकते हैं?

सरकार से कई दौर की वार्ताएं हुई हैं, लेकिन आश्वासनों के सिवाए कुछ हासिल नहीं हुआ। सेविकाओं का कहना है कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होती, तब तक वो हड़ताल जारी रखेंगी।

बच्चों के हक की लड़ाई

महाराष्ट्र की आंगनवाड़ी सेविकाओं की हड़ताल सिर्फ वेतन या भोजन के लिए नहीं है। यह उन लाखों बच्चों के अधिकारों की लड़ाई है, जो भविष्य की उम्मीद हैं। इन नन्हे हाथों में ही देश का भविष्य समाहित है। ऐसे में उनकी ज़रूरतों को अनदेखा करना किसी भी तरह से जायज़ नहीं है।

सरकार को चाहिए कि सिर्फ वादे न करे, बल्कि ठोस कदम उठाए और इन आंगनवाड़ी केंद्रों को बच्चों के लिए सुरक्षित और पोषण का ठिकाना बनाए। आखिरकार, यही देश के भविष्य को संवारने का रास्ता है।

हमें उम्मीद है कि सरकार जल्द ही इस मामले में सकारात्मक कदम उठाएगी और आंगनवाड़ी केंद्रों को फिर से बच्चों की किलकारियों से गुंजायमान करेगी।

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