
देहरादून: उत्तराखंड में पहाड़ी मूल के आईपीएस अधिकारियों की तैनाती को लेकर सवाल उठने लगे हैं। वर्तमान में 13 जिलों में से केवल 2 जिलों में पहाड़ी मूल के आईपीएस को जिम्मेदारी दी गई है, जबकि बाकी 11 जिलों में मैदान से आने वाले अधिकारियों का दबदबा है। एक समय था जब पहाड़ी क्षेत्रों में पहाड़ी आईपीएस अधिकारियों को तैनात किया जाता था, ताकि वे स्थानीय भूगोल, संस्कृति और सामाजिक ताने-बाने को बेहतर समझ सकें और प्रशासनिक कामकाज में आसानी हो। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं।
क्या यह सिर्फ संयोग है या सोच-समझकर लिया गया फैसला?
पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि पहाड़ी मूल के आईपीएस अधिकारियों को या तो साइड पोस्टिंग दी जा रही है या फिर उन्हें महत्वपूर्ण जिलों की कमान नहीं सौंपी जा रही। पहले एक रेंज में पहाड़ी इलाका हुआ करता था, लेकिन अब वहां से भी पहाड़ी अधिकारियों को हटाया जा रहा है। यह बदलाव क्या प्रशासनिक दृष्टि से सही है, या फिर इसके पीछे कोई और कारण छिपा है?
क्या पहाड़ी अफसरों की प्रशासनिक क्षमता पर सवाल?
अगर पहाड़ी आईपीएस अधिकारियों को बड़े जिलों की जिम्मेदारी नहीं दी जा रही है, तो क्या इसका मतलब यह है कि उनकी प्रशासनिक क्षमता मैदान से आने वाले अधिकारियों की तुलना में कम है? उत्तराखंड जैसे संवेदनशील पहाड़ी राज्य में, जहां भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियां मैदान से काफी अलग हैं, वहां स्थानीय पृष्ठभूमि के अधिकारियों की नियुक्ति से प्रशासनिक कार्यों में सुगमता आ सकती है। लेकिन जब पहाड़ी मूल के आईपीएस अधिकारियों को साइडलाइन किया जाता है, तो यह सवाल उठता है कि क्या यह सिर्फ एक संयोग है या फिर जानबूझकर उठाया गया कदम?
सीएम धामी को इस ओर ध्यान देना चाहिए
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। राज्य का गठन पहाड़ी क्षेत्रों के विकास और उनके हक के लिए हुआ था, लेकिन अगर राज्य की पुलिस व्यवस्था में ही पहाड़ियों की उपेक्षा हो रही है, तो यह चिंता का विषय है। संतुलन बनाना जरूरी है ताकि प्रदेश के सभी आईपीएस अधिकारियों को उनकी क्षमता और योग्यता के अनुसार अवसर मिलें, न कि उनके क्षेत्रीय आधार पर।
अब सवाल उठता है—यह पहाड़ बनाम मैदान की बहस बन चुकी है या फिर यह सिर्फ प्रशासनिक निर्णयों का हिस्सा है?