विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि गरीबी के आंकड़ों के गलत विश्लेषण और नीति निर्माताओं की उदासीनता भारत के बढ़ते असमानता संकट को और भी खराब कर सकती है। उनका कहना है कि गरीबी के आधिकारिक आंकड़े वास्तविक स्थिति को दर्शाने में विफल हो रहे हैं, जिससे शोषित उन्मूलन की रणनीति प्रभावित हो रही है।

पिछले कुछ दशकों में भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास हुआ है, लेकिन यह विकास असमान रूप से बंटा हुआ है। धनी वर्ग की आय में तेजी से वृद्धि हुई है, जबकि गरीबों की आय में मामूली ही बढ़ोतरी हुई है। इसके चलते देश में आय असमानता की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है।
कई विशेषज्ञों का मानना है कि गरीबी के आधिकारिक आंकड़े वास्तविक शोषित को कम करके आंकते हैं। इसका एक कारण यह है कि गरीबी रेखा को कई दशक पहले तय किया गया था और तब से जीवन यापन की लागत में काफी वृद्धि हो चुकी है। इसके अलावा, आंकड़ों में शोषित के बहुआयामी पहलुओं को शामिल नहीं किया जाता है, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा तक पहुंच।
विशेषज्ञों का कहना है कि गरीबी के गलत आकलन के कारण गरीबी उन्मूलन की नीतियां लक्ष्य से भटक सकती हैं। साथ ही, सरकार गरीबी कम करने के लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित करने में भी हिचकिचा सकती है।
असमानता को कम करने के लिए, विशेषज्ञ गरीबी के अधिक सटीक माप का उपयोग करने, गरीबों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने, और शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच बढ़ाने की सलाह देते हैं। साथ ही, उन्होंने यह भी सुझाव दिया है कि सरकार को शोषित उन्मूलन कार्यक्रमों में अधिक निवेश करना चाहिए और इन कार्यक्रमों की निगरानी भी सख्त करनी चाहिए।
अगर गरीबी के आंकड़ों के विश्लेषण में सुधार नहीं किया गया और नीति निर्माताओं ने इस ज्वलंत मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया, तो भारत का असमानता संकट और गहरा सकता है।

